श्रीराम स्तुति एक भक्ति गीत है जो भगवान श्रीराम की महिमा और उनके दिव्य गुणों का गुणगान करता है। यह स्तुति भगवान श्रीराम के आदर्शों, वीरता, और धर्म के पालन को सराहते हुए, उनके आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करती है। भक्त इसे भगवान राम की कृपा और मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए उच्चारण करते हैं।
“स्तुति” शब्द संस्कृत में प्रशंसा या स्तवन को दर्शाता है। श्रीराम स्तुति में भगवान राम की विशेषताओं, उनके आदर्श पुत्र, राजा, और पतिव्रता के रूप में उनकी भूमिका को उजागर किया जाता है। राम का जीवन, जो रामायण में वर्णित है, धर्म, सत्य, और नैतिकता के उच्चतम मानकों को दर्शाता है।
श्रीराम स्तुति के मुख्य विषय:
- भगवान राम के दिव्य गुण: इस स्तुति में भगवान राम के गुण जैसे उनकी करुणा, वीरता, बुद्धिमत्ता, विनम्रता और सत्य और न्याय के प्रति उनकी निष्ठा का उल्लेख किया जाता है। उनका जीवन यह सिखाता है कि हमें अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए सत्य, धर्म और ईमानदारी के मार्ग पर चलना चाहिए।
- भगवान राम का रक्षक रूप: श्रीराम स्तुति में भगवान राम को उनके भक्तों का रक्षक बताया गया है, जो संसार में पाप और अन्याय का नाश करते हैं। रावण का वध उनका एक प्रमुख उदाहरण है, जो बुराई पर अच्छाई की विजय को दर्शाता है।
- भक्ति और समर्पण: इस स्तुति में भक्तों को भगवान राम के प्रति समर्पण और भक्ति की प्रेरणा दी जाती है। यह सिखाता है कि यदि हम पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान के चरणों में समर्पित हो जाएं, तो हम सभी कठिनाइयों से उबर सकते हैं और शांति प्राप्त कर सकते हैं।
- नैतिक और धार्मिक शिक्षा: यह स्तुति भगवान राम द्वारा पालन किए गए नैतिक सिद्धांतों को भी उजागर करती है, जैसे बड़ों का सम्मान करना, अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा और क्षमा की भावना।
श्रीराम स्तुति भगवान श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करती है और उनके आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना करती है। यह स्तुति भक्तों को भगवान राम के आदर्शों से मार्गदर्शन प्राप्त करने का एक माध्यम है और यह हमें सिखाती है कि जीवन में सत्य, धर्म, और करुणा के साथ जीना चाहिए, जैसा कि भगवान राम ने अपने जीवन में दिखाया। यह एक शाश्वत भक्ति और समर्पण का रूप है जो भक्तों को दिव्य कृपा और मार्गदर्शन प्रदान करता है।
श्रीराम स्तुति – Shri Ram Stuti Lyrics
॥दोहा॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजुमन
हरण भवभय दारुणं ।
नव कंज लोचन कंज मुख
कर कंज पद कंजारुणं ॥१॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि
नव नील नीरद सुन्दरं ।
पटपीत मानहुँ तडित रुचि शुचि
नोमि जनक सुतावरं ॥२॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव
दैत्य वंश निकन्दनं ।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल
चन्द दशरथ नन्दनं ॥३॥
शिर मुकुट कुंडल तिलक
चारु उदारु अङ्ग विभूषणं ।
आजानु भुज शर चाप धर
संग्राम जित खरदूषणं ॥४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर
शेष मुनि मन रंजनं ।
मम् हृदय कंज निवास कुरु
कामादि खलदल गंजनं ॥५॥
मन जाहि राच्यो मिलहि सो
वर सहज सुन्दर सांवरो ।
करुणा निधान सुजान शील
स्नेह जानत रावरो ॥६॥
एहि भांति गौरी असीस सुन सिय
सहित हिय हरषित अली।
तुलसी भवानिहि पूजी पुनि-पुनि
मुदित मन मन्दिर चली ॥७॥
॥सोरठा॥
जानी गौरी अनुकूल सिय
हिय हरषु न जाइ कहि ।
मंजुल मंगल मूल वाम
अङ्ग फरकन लगे।
रचयिता: गोस्वामी तुलसीदास